मैं आढे तिर्छे खयाल सोचूं ....
के बे-इरादा किताब लिखूं....
कोइ शनासा गजल तराशूं ....
के अजनबी इन्तेसाब लिखूं....
गंवा दूं इक उम्र के जमाने ....
के इक पल का हिसाब लिखूं....
मेरी तबियत पर मुन्हासिर है ....
मैं जिस तरह का निसाब लिखूं....
यह मेरे अपने मिजाज पर है ....
अजाब सोचूं, सवाब लिखूं....
तावील तर है सफर, तुम्हें क्या ....
मैं जी रहा हूं मगर तुम्हें क्या?
मगर तुम्हें क्या, के तुम तो कब से ....
मेरे इरादे गंवा चुके हो....
जला के सारे हरूफ अपने ....
मेरी दुआएं बुझा चुके हो....
मैं रात ओढूं के सुबह पहनूं ....
तुम अपनी रस्में उठा चुके हो....
सुना है सब कुछ भुला चुके हो....
तो अब मेरे दिल पे यह जबर कैसा ?
यह दिल तो हद से गुजर चुका है....
गुजर चुका है मगर तुम्हें क्या?
खिजां का मौसम ठहर चुका है....
ठहर चुका है मगर तुम्हें क्या?
मगर तुम्हें क्या के इस खिजां में
मैं जिस तरह के भी ख्वाब लिखूं..